वाराणसी। देश के विभिन्न हिस्सों में जीवित्पुत्रिका व्रत मनाया जाता है। ये व्रत खासतौर पर संतान प्राप्ति व संतान की मंगलकामना तथा लंबी उम्र के लिए किया जाता है।आमतौर पर ये व्रत हर वर्ष मनाया जाता है, जिसमें महिलाएं पुत्र की सकुशलता की कामना करते हुए निर्जला व्रत करती हैं। विशेषकर यह व्रत उत्तर प्रदेश और बिहार में किया जाता है। इस व्रत को अष्टमी तिथि के दिन मनाया जाता है।
महिलाएं पुत्र की सकुशलता की कामना करते हुए निर्जला व्रत करती हैं।निर्जला व्रत से मतलब है कि पूरा दिन कुछ खाना पीना तो दूर बल्कि जल की एक बूंद भी हलक तक नहीं पहुंचनीचाहिए। इस व्रत में तीन दिन तक उपवास किया जाता है। पहले दिन महिलाएं स्नान करने के बाद भोजन करती हैं और फिर दिन भर कुछ नहीं खाती हैं। व्रत का दूसरा दिन अष्टमी को पड़ता है और यही मुख्य दिन होता है। इस दिन महिलाएं निर्जला व्रत रखती हैं। व्रत के तीसरे दिन पारण करने के बाद भोजन ग्रहण किया जाता है।
पूजा विधि
इस दिन महिलाएं सुबह स्नान के बाद पूजा-पाठ करती हैं और फिर पूरा दिन निर्जला व्रत रखती हैं। अष्टमी तिथि को प्रदोषकाल में महिलाएं जीमूतवाहन की पूजा करती है। प्रदोष काल का समय 4:28 से रात 7:32 तक है। पूजा करने से पहले पूजा स्थल को अच्छे से साफ कर लें, अथवा गाय के गोबर से पूजा स्थल को अच्छे से लीपकर स्वच्छ कर लें। साथ ही एक छोटा सा तालाब वहां बना लें और उसके निकट एक पाकड़ की डाल खड़ी कर दें। अब जीमूतवाहन की कुशा से निर्मित प्रतिमा को जल या मिट्टी के पात्र में स्थापित कर दें। उन्हें धूप-दीप, अक्षत, पुष्प, फल आदि अर्पित करें। इसके साथ ही मिट्टी और गाय के गोबर से सियारिन और चील की प्रतिमा बनाई जाती है। प्रतिमा बन जाने के बाद उसके माथे पर लाल सिंदूर का टीका लगायें।
पूजन समाप्त होने के बाद जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा सुननी चाहिए। व्रत के तीसरे दिन महिलाएं पारण करती हैं। सूर्य को अर्घ्य देने के बाद महिलाएं अन्न ग्रहण कर सकती हैं। मुख्य रूप से पारण वाले दिन झोर भात, मरुवा की रोटी और नोनी का साग खाया जाता है।
